अमृत बेला
बेला अमृत गया , आलसी सो रहा , बन अभागा ।
साथी सारे जगे तू न जागा ।।
झोलियाँ भर रहे भाग्य वाले , लाखों पतितों ने जीवन सँभाले |
रंक राजा बने , भक्तिरस में सने , कष्ट भागा ।।१ ।।
कर्म उत्तम थे नर तन जो पाया , आलसी बन के हीरा गँवाया ।।
उल्टी हो गई मति , करके अपनी क्षति , रोने लगा || २ ||
कर्म वेदों का देखा न भाला , वेला अमृत गया न सम्भाला ।
सौदा घाटे का कर , हाथ माथे पे धर , रोने लागा || ३ ||
देश तूने न अब भी विचारा , सिर से ऋषियों का ऋण न उतारा ।।
हंस का रूप था , गदला पानी पिया , बन के कागा ।। ४ ।।