उठो दयानन्द के सिपाहियों समय पुकार रहा है।
देशद्रोह का विषधर फन फैला फुंकार रहा है ।।
उठो विश्व की सूनी आँखे काजल माँग रही हैं।
उठो अनेक द्रुपद सुताएँ आँचल माँग रही हैं ।।
मरघट को पनघट-सा कर दो जग की प्यास बुझा दो।
भटक रहे जो मरुस्थलों में उनको राह दिखा दो ।।
गले लगा लो उनको जिनको जग दुत्कार रहा है ।। १ ।।
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती 👇 https://aryaveerdal.in/koshish-karne-walo-ki-har-nahi-hoti/
तुम चाहो तो पत्थर को भी मोम बना सकते हो।
तुम चाहो तो खारे जल को सोम बना सकते हो।।
तुम चाहो तो बंजर में भी बाग लगा सकते हो।
तुम चाहो तो पानी में भी आग लगा सकते हो।।
जातिवाद जग की नस नस में ज़हर उतार रहा है ।।२।।
याद करो क्यों भूल गए जो ऋषि को वचन दिया था।
शायद वायदा याद नहीं जो आपने कभी किया था।
वचन दिया था ओम् पताका कभी न झुकने देंगे।
हवन कुण्ड की अग्नि घरों से कभी न बुझने देंगे।
लहू शहीदों का गद्दारों को धिक्कार रहा है ।।३।।
जाग जाग नौजवान 👇 https://aryaveerdal.in/jag-jag-naujwan/
कब तक आँख बचा पाओगे आग बहुत फैली है।
उजली-उजली दिखने वाली हर चादर मैली है।
लेखराम का लहू पुकारे आँख ज़रा तो खोलो।
एक बार मिलकर सारे ऋषि दयानन्द की जय बोलो।
वेदज्ञान का व्यथित सूर्य तुम्हें निहार रहा है ।।४।।